Chandra Shekhar Azad Birth Anniversary: इस साल हम एक ऐसे इंसान की 119वीं जयंती मना रहे हैं, जिसने अपने नाम के जैसा ही अपनी जिंदगी जी चंद्रशेखर ‘आजाद’। वो क्रांतिकारी, जिसे अंग्रेज कभी पकड़ नहीं पाए, और जब घिर भी गया तो उसने खुद को गोली मारकर अपना वादा निभाया कि वो कभी पकड़ा नहीं जाएगा।
जब अंग्रेजों ने उन्हें असहयोग आंदोलन के दौरान गिरफ्तार किया था और अदालत में नाम पूछा तो उन्होंने जवाब दिया, “मेरा नाम आजाद है, पिता का नाम स्वतंत्रता और पता जेल।” सोचिए, कितनी हिम्मत और जुनून था उस वक्त एक नौजवान में, जो सिस्टम को खुली चुनौती दे रहा था।
आजाद की जिंदगी कई साहसिक कारनामों से भरी हुई थी, लेकिन सबसे चर्चित और ऐतिहासिक घटना रही – काकोरी ट्रेन डकैती। ये वही वाकया था जिसने ब्रिटिश सरकार की नींव हिला दी थी। बात है 9 अगस्त 1925 की। शाम का वक्त था और आसमान में हल्का अंधेरा छाने लगा था।
सहारनपुर से लखनऊ जा रही एक पैसेंजर ट्रेन काकोरी स्टेशन के पास पहुंची। वहां से 10 क्रांतिकारी चुपचाप ट्रेन में सवार हो गए। इनका मकसद था ब्रिटिश सरकार के खजाने को लूटना, ताकि उससे हथियार खरीदे जा सकें और आजादी की लड़ाई को ताकत मिल सके।
इस प्लान में चंद्रशेखर आजाद के साथ थे रामप्रसाद बिस्मिल और बाकी साथी। सब कुछ बेहद प्लानिंग के साथ हुआ। जैसे ही सही समय आया, उन्होंने ट्रेन रोक दी और सरकारी खजाना लूट लिया। इस एक घटना से अंग्रेजों की नाक में दम हो गया था।
काकोरी कांड सिर्फ एक डकैती नहीं थी, बल्कि वो एक सशक्त संदेश था कि अब भारत के नौजवान सिर्फ नारे नहीं, बल्कि एक्शन में भी भरोसा रखते हैं।

लाला लाजपत राय की मौत का बदला
जब लाला लाजपत राय की लाठीचार्ज में मौत हुई, तो पूरे देश में गुस्सा फैल गया। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और राजगुरु ने तय किया कि इस अन्याय का जवाब जरूर दिया जाएगा। 17 दिसंबर 1928 की शाम को लाहौर की सड़कों पर एक बड़ा बदलाव होने वाला था।
पुलिस अधीक्षक ऑफिस के बाहर जैसे ही जेपी सांडर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटरसाइकिल पर निकले, राजगुरु ने पहली गोली चलाई। इसके बाद भगत सिंह ने आगे बढ़कर लगातार गोलियां दागीं। जब सांडर्स का अंगरक्षक पीछा करने लगा, तो आजाद ने उसे भी मार गिराया।
इस घटना के बाद लाहौर की दीवारों पर पोस्टर चिपकाए गए जिनमें साफ लिखा था लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया गया है। ये सिर्फ एक हत्या नहीं थी, ये एक साफ संदेश था कि आजादी की लड़ाई अब और तीव्र हो गई है। कुछ समय बाद चंद्रशेखर आजाद अपने साथी सुखदेव राज से मिलने इलाहाबाद के एल्फ्रेड पार्क पहुंचे।
लेकिन शायद किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। बात चल ही रही थी कि पुलिस ने पार्क को चारों ओर से घेर लिया। दोनों ओर से गोलियां चलने लगीं। लेकिन आजाद ने पहले ही प्रण लिया था कि वो कभी भी जिंदा पुलिस के हाथ नहीं आएंगे। और आखिरकार, जब गोलियां खत्म हो गईं और रास्ता नहीं बचा, तो उन्होंने खुद को गोली मार ली।
आजादी के बाद सरकार ने उनके बलिदान को याद करते हुए उस पार्क का नाम चंद्रशेखर आजाद पार्क रख दिया। और जहां वो बचपन में रहे थे, उस गांव को अब आजादपुरा कहा जाता है।